लोकप्रिय शायरी २०१७,,,

 
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परेशानियों का शबब ले कर चले हो ए दोस्त
कभी मुरी तनहाइयों को भी परख ले!!!
अपनी हालत का एहसास कहाँ है मुझको
लोगों से सुना है कि परेशां हूँ मैं |
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क्यूँ तुझे देख कर उठती हैं निगाहें मुझ पर 
क्या तेरे चेहरे पे मेरा नाम लिखा होता है |
नाम ले कर मेरा उस शख्स को पुकारो तो सही,
इस भरे शहर में जिस शख्श को तन्हा देखो...
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आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा
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अब तो आँखों में समाती नहीं सूरत कोई 
गौर से मैंने तुझे काश न देखा होता |
काश मिल जाये कभी ख्वाब की ताबीर मुझे,
आंख खुलते ही तुझे सामने बेठा देखूँ....
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वक़्त गुजरेगा हम बिखर जायेंगे ,
कौन जाने की हम किधर जायेंगे ,…
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हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है
निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर
गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है
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आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा 
प्रिय रेहान जी उन्वान चिश्ती की इसी गज़ल के कुछ और शेर है 
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बेवक्त जाऊँगा तो सब चौंक पडेंगे 
इक उम्र हुयी दिन में कभी घर नहीं देखा |
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पे नज़र है 
आँखों ने अभी मील का पत्थर नहीं देखा |
ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं 
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा |
खत ऐसा लिखा है के नगीने जड़े हैं 
वो हाथ के जिसने कभी ज़ेवर नहीं देखा |
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हजारो खवाहिशे ऐसी की हर खवाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले.
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले.
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है पेश करता हूँ:
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दिल से मिलने कि तमन्ना ही नही जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की ज़रूरत क्या है.
दिल न मिल पाए अगर आंख बचा कर चल दो,
बेसबब हाथ मिलाने की जरुरत क्या है.
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क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है
भूख से बेहाल बच्चों को सुना कर चुटकुले
जो हंसा दे, आज का सबसे बड़ा फनकार है
खूबसूरत जिस्म हो या सौ टका ईमान हो
बेचने की ठान लो तो हर तरफ बाज़ार है 
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"दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख्स ने आँखें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता"
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ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है
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मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है
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ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है 
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एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया,
वह परिन्दा भी कई दिन का भूखा निकला 
प्रिय मून जी बहुत उम्दा शेर पेश किये है
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ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है 
बहुत खूब....
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नवाज़ देवबंदी जी की एक गजल पेश है जिसका अंतिम शेर मुझे बेहद पसंद है |
ले के माज़ी को जो हाल आया तो दिल काँप गया 
जब कभी उनका ख्याल आया तो दिल काँप गया |
ऐसा तोडा था मुहब्बत में किसी ने दिल को
जब किसी शीशे में बाल आया तो दिल काँप गया |
सर बुलंदी पे तो मगरूर थे हम भी लेकिन 
चढ़ते सूरज पे ज़वाल आया तो दिल काँप गया |
बद नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब
अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल काँप गया |
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भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो 
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा
गरीबों की ये बस्ती है कहाँ से शोखियाँ लाऊं,
यहाँ बच्चे तो रहते हैं मगर बचपन नहीं रहता...
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बद नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब
अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल काँप गया |
बेहतरीन, बहुत आला शेर है, शुक्रिया इस ग़जल के लिए
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मज़लूम की आँहों के निशाने नहीं बैठे 
ज़ालिम के अभी होश ठिकाने नहीं बैठे |
गो वक़्त ने ऐसे भी मवाके हमे बख्शे 
हम फिर भी बुजुर्गों के सिरहाने नहीं बैठे |
गौ-हालाँकि
मवाके -मौका शब्द का बहुवचन,कई अवसर
सिरहाने-सर की तरफ |
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भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो 
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा
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गरीबों की ये बस्ती है कहाँ से शोखियाँ लाऊं,
यहाँ बच्चे तो रहते हैं मगर बचपन नहीं रहता...
अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है
"""""""""""""""""""""""
मज़लूम की आँहों के निशाने नहीं बैठे 
ज़ालिम के अभी होश ठिकाने नहीं बैठे |
गो वक़्त ने ऐसे भी मवाके हमे बख्शे 
हम फिर भी बुजुर्गों के सिरहाने नहीं बैठे |
गौ-हालाँकि
मवाके -मौका शब्द का बहुवचन,कई अवसर
सिरहाने-सर की तरफ |
"""""""""""""""""""""""
नवाज़ देवबंदी जी की एक गजल पेश है जिसका अंतिम शेर मुझे बेहद पसंद है |
ले के माज़ी को जो हाल आया तो दिल काँप गया 
जब कभी उनका ख्याल आया तो दिल काँप गया |
ऐसा तोडा था मुहब्बत में किसी ने दिल को
जब किसी शीशे में बाल आया तो दिल काँप गया |
सर बुलंदी पे तो मगरूर थे हम भी लेकिन 
चढ़ते सूरज पे ज़वाल आया तो दिल काँप गया |
बद नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब
अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल काँप गया |
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पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना
जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
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बेखुदी ले गयी कहाँ हम को
देर से इंतज़ार है अपना
रोते फिरते हैं सारी-सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना
दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख्तियार है अपना
कुछ नही हम मिसाले-अनका लेक
शहर-शहर इश्तेहार है अपना
जिस को तुम आसमान कहते हो
सो दिलों का गुबार है अपना
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हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा 
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा 
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बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है
यह मुमकिन ही नहीं छेड़ूँ न तुझको रास्ता चलते
तुझे ऐ मौत मैंने उम्र भर भौजाई लिक्खा है
मियाँ मसनद नशीनी मुफ़्त में कब हाथ आती है
दही को दूध लिक्खा दूध को बालाई लिक्खा है
कई दिन हो गए सल्फ़ास खा कर मरने वाली को
मगर उसकी हथेली पर अभी शहनाई लिक्खा है
हमारे मुल्क में इन्सान अब घर में नहीं रहते
कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम कहीं ईसाई लिक्खा है
यह दुख शायद हमारी ज़िन्दगी के साथ जाएगा
कि जो दिल पर लगा है तीर उसपर भाई लिक्खा है
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कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
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मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ
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मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
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कोई भी ढांक सका न, वफा का नंगा बदन
ये भिखारन तो हजारों घरों से गुजरी है।।
जब से ‘सूरज’ की धूप, दोपहर बनी मुझपे
मेरी परछाई, मुझसे फासलों से गुजरी है
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इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये
ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये
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हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
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पेश है मुन्नवर राणा की वो बेहतरीन ग़ज़ल जो उन लोगों के लिए लिखी थी ,
जो हिन्दोस्तान ,छोड़कर पाकिस्तान चले गए.
इस ग़ज़ल में पेश है,पाकिस्तान में "मुहाजिर " बन गए इन लोगों ने क्या खोया और क्या पाया है....
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मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं
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आंखे रो रही थी पर होठो को मुस्कुराना पड़ा,
दिल में था दर्द पर खुश हु जाताना पड़ा.
जिन्हें हम बता देना चाहते थे सब कुछ,
बारिस का पानी कह आंसुओ को छुपाना पड़ा.
सरकते सरकते हम सरक कर दुनिया से सरक गए
मगर उन्हें क्या,वो तो हमे सरकाने भी नहीं आये!!!
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पढ़ी नमाज़े जनाज़ा हमारी गैरों ने
मरे थे जिनके लिए वो रह गए वज़ू करते |
पाथ जी एक याद रकने योग्य शेर +रेपो
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मुझे तो होश नही, तुमको खबर हो शायद ,
लोग कहते है कि तुम ने मुझ को बर्बाद कर दिया ।
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हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता
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न जाने कौन सा आंसू किसी से क्या कह दे 
हम इस ख्याल से नजरें झुकाएं बैठे हैं
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मेरी रूह की हकीकत मेरे आंसुओं से पूछो 
मेरा मजलिसे तबस्सुम मेरा तर्जुमा नहीं है |
मजलिसे तबस्सुम -महफ़िल में दिखाने के लिए मुस्कराहट 
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मै खुदाके नजरोमें कैसे न गुनेह्गार होता फराज
के अब तो सजदोमेभी वो याद आने लगे
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क्योंकर न लिपटके तुझसे सौऊ ऐ कब्र...
मैंने भी तो जाँ देके पाया है तुझे...
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मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते , के 'फिराक'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
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मुझे तो होश नही, तुमको खबर हो शायद ,
लोग कहते है कि तुम ने मुझ को बर्बाद कर दिया ।
अपनी हालत का एहसास कहाँ है मुझको
लोगों से सुना है कि परेशां हूँ मैं |
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मेरी रूह की हकीकत मेरे आंसुओं से पूछो 
मेरा मजलिसे तबस्सुम मेरा तर्जुमा नहीं है |
कोई हमनफस नहीं है ,कोई राजदाँ नहीं है 
फकत एक दिल था अपना ,सो वो मेहरबाँ नहीं है |
किसी आँख को सदा दो ,किसी जुल्फ को पुकारो 
बड़ी धूप पड़ रही है ,कोई सायबाँ नहीं है |
इन्ही पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ 
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है |
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वाह पाठ जी,वाह....क्या दिल को छूने वाली पंक्तियाँ कही हैं अपने....
कुछ मेरी तरफ से गौर फरमाईएगा
जनाजे पे मेरी आंसू उसके ना टपक पायें
बस येही दुआ है वो हमारी शक्ल भी ना देख पायें!!!
होगा इसका असर उनके दिल पर,कभी तो समझेंगे
पर वो आज तक मेरे प्यार का मोल न समझ पाए!!!
पढ़ी नमाज़े जनाज़ा हमारी गैरों ने
मरे थे जिनके लिए वो रह गए वज़ू करते |
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परेशानियों का शबब ले कर चले हो ए दोस्त
कभी मुरी तनहाइयों को भी परख ले!!!
अपनी हालत का एहसास कहाँ है मुझको
लोगों से सुना है कि परेशां हूँ मैं |
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क्यूँ तुझे देख कर उठती हैं निगाहें मुझ पर 
क्या तेरे चेहरे पे मेरा नाम लिखा होता है |
नाम ले कर मेरा उस शख्स को पुकारो तो सही,
इस भरे शहर में जिस शख्श को तन्हा देखो...
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आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा
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अब तो आँखों में समाती नहीं सूरत कोई 
गौर से मैंने तुझे काश न देखा होता |
काश मिल जाये कभी ख्वाब की ताबीर मुझे,
आंख खुलते ही तुझे सामने बेठा देखूँ....
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वक़्त गुजरेगा हम बिखर जायेंगे ,
कौन जाने की हम किधर जायेंगे ,…
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हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है
निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर
गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है
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आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा 
प्रिय रेहान जी उन्वान चिश्ती की इसी गज़ल के कुछ और शेर है 
"""""""""""""""""""""""
बेवक्त जाऊँगा तो सब चौंक पडेंगे 
इक उम्र हुयी दिन में कभी घर नहीं देखा |
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पे नज़र है 
आँखों ने अभी मील का पत्थर नहीं देखा |
ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं 
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा |
खत ऐसा लिखा है के नगीने जड़े हैं 
वो हाथ के जिसने कभी ज़ेवर नहीं देखा |
"""""""""""""""""""""""
हजारो खवाहिशे ऐसी की हर खवाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले.
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले.
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है पेश करता हूँ:
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले..बहुत निकले मगर मेरे अरमान दिल से लेकिन कम निकले..
निकलना खुल्द( स्वर्ग) से आदम का सुनते आये थे, हुआ मालुम तब , तेरे कूचे से जब हम निकले..
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